दयालु मंत्री

प्राचीन समय की बात है। अयोध्या नगर के ग्रामीण अंचल में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। परिवार में चार भाई और उनकी पत्नियां थीं। चारों भाई अनपढ़ थे और मात्र सुनी हुई क्रियाविधि के आधार पर कर्मकाण्ड इत्यादि से जीवन यापन करते थे। इस प्रकार अत्यंत निर्धनता का जीवन व्यतीत कर रहे थे। इसी बीच यह सुनाई पड़ा कि उज्जैन के नरेश आगामी नवरात्र में विशाल राम कथा का आयोजन कर रहे हैं जिसमें भाग लेने वाले प्रत्येक ब्राह्मण को प्रचुर दक्षिणा मिलेगी। इस सूचना को सुन कर बड़े भाई की पत्नी ने अपने पति से कहा ”तुम वहां जाओ। ऐसा अवसर जीवन में बार-बार नहीं आता।”

पति ने कहा ”मैं वहां क्या करूंगा? मुझे तो कुछ भी नहीं आता है।”

किंतु पत्नी ने न मानना था और न वह मानी। अंततः गृहक्लेश से बचने के लिए बड़े भाई ने प्रस्थान करना ही उचित समझा।

बड़े भाई का जाना था कि मंझले की पत्नी ने भी आसनपाटी पकड़ ली और उसके पति को भी प्रस्थान करना पड़ा। फिर तो शेष दोनों देवरानियों ने भी अपनी जेठानियों की ही राह पकड़ी और उनके पतियों को भी भागते ही बना।

इस प्रकार लंबी यात्रा के उपरांत जब बड़ा भाई उज्जैन पहुंचा तब नवरात्र प्रारंभ हो चुके थे और राम कथा आयोजन समिति ने इस ब्राह्मण को नगर के बाहर एक प्राचीन किंतु उजाड़ मंदिर में राम कथा करने का निर्देश दिया। मंदिर में जाकर बड़े भाई ने स्नान इत्यादि से निपटकर रामायण खोली। लेकिन उसके लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर था। क्या करता? बहुत चिंतित हुआ। फिर उसे यह भी डर हुआ कि अगर कहीं राजा निरीक्षण करते हए आ गए और कुछ पूंछ लिया तो क्या बताउंगा। ऐसा सोचने पर उसे बहुत भय हुआ और आंख मूंद कर भगवान का स्मरण करने लगा और उसके मुंह से स्वतः ही निकलने लगा, ”राजा पुछिहैं तो का बताइब”।

मंझला भी समिति द्वारा उसी मंदिर में भेज दिया गया। देखता है कि बड़ा भाई जप रहा है, ”राजा पुछिहैं तो का बताइब”। उसे हंसी आ गई। बैठ गया और कहने लगा, ”जौन तोहार गत तौन हमार गत”।

कालक्रम में तीसरा भाई भी मंदिर में पहुंचा और बड़े दोनों भाइयों को ”राजा पुछिहैं तो का बताइब” और ”जौन तोहार गत तौन हमार गत” जपते देखकर बोला ”ई अंधेर कय दिन चली”। इसी प्रकार चौथा भाई भी मंदिर में पहुंचा और अपने भाइयों को उपर्युक्त प्रकार से जप करते देखा तो हंस पड़ा। छोटा था अतः स्वभाव से ही बिलकुल बेफिक्र था। वो भी मस्ती में कहने लगा, ”जै दिन चली तै दिन चली”।

इस प्रकार समय व्यतीत होता रहा। राम नवमी का दिन आ पहुंचा। दरबार की यज्ञशाला में सभी आमंत्रित ब्राह्मण एकत्रित हुए और यज्ञ के उपरांत सभी को दान-दक्षिणा प्राप्त हुई। सभी के विदा हो जाने पर राजा ने समिति के प्रधान से पूछा, ”क्या सभी ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा दिया जा चुका है?”

”नहीं महाराज। नगर के बाहर चार ब्राह्मण राम कथा कर रहे थे। वे मुझे दिखाई नहीं दिए।”

”ऐसा। निश्चय ही वे अत्यंत गर्व रखने वाले ब्राह्मण प्रतीत होते हैं। लगता है उन्हें दरबार में उपस्थित होकर दक्षिणा लेना अपमानजनक लगा होगा। अतः वे लोग नहीं आए। आइए हम लोग ही वहां चलते हैं।”

इस प्रकार राजा अपने मंत्री एवं समिति के प्रधान और अन्य दरबारियों के साथ उस मंदिर में जा पहुंचे। देखते हैं कि चारों ब्राह्मण रामायण के सामने बैठे हैं। उनके नैत्र बंद हैं और जप रहे हैं -”राजा पुछिहैं तो का बताइब”, ”जौन तोहार गत तौन हमार गत”, ”ई अंधेर कय दिन चली”, ”जै दिन चली तै दिन चली”। राजा की समझ में कुछ नहीं आया। उसने समिति के प्रधान की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।

”महाराज, ये लोग क्या कह रहे हैं। मुझे नहीं पता। किंतु निश्चय ही यह रामायण में तो कहीं नहीं है।”

राजा असमंजस में पड़े। उन्हें भी ये जप रामायण के किसी प्रसंग से संबंधित नहीं लगे। किंतु यदि ऐसा स्वीकार किया जाए तो ब्राह्मणों को दंड देना पड़ेगा। यह भी राजा नहीं चाहते थे। अब वहां पहुंचकर या तो उन्हे पुरस्कृत करें या दंड दें। ऐसा न करने पर राजा की अवमानना होती थी। अतः इस असमंजस से उबारने के लिए राजा ने मंत्री की ओर देखा। मंत्री बहुत बुद्धिमान था और दयालु भी बहुत था। वह समझ चुका था कि ये ब्राह्मण मूर्ख हैं। किंतु उसे ये ब्राह्मण सरल लगे, धूर्त नहीं लग रहे थे। अतः वह बोला- ”भगवन, ये ब्राह्मण रामचरित मानस का ही पाठ कर रहे हैं।”

”क्या”, राजा सहित सभी के मुख से आश्चर्य भरा शब्द निकला।

”मंत्री जी, क्षमा करें। किंतु ये रामचरित मानस का पाठ है?” समिति के प्रधान ने पूंछ ही लिया।

”हां भई। देखो ये जो पहले पंडित जी हैं ये अयोध्या काण्ड के उस स्थल पर पहुंच चुके हैं जब सुमंत राम को वन में छोड़कर लौट रहे हैं। राजा दशरथ ने उन्हे निर्देश दिया था कि राम को वन दिखाकर लौटा लाना। यदि वे न लौटे तो भी लक्ष्मण और सीता को तो अवश्य लौटा लाना। लेकिन कोई भी नहीं लौटा। अतः सुमंत यह सोच रहे हैं कि -”राजा पुछिहैं तो का बताइब”।

”ठीक है, लेकिन बाकी?”

”बाकी भी बताता हूँ भाई।” मंत्री मुस्कुराते हुए बोले, ” दूसरे पंडित जी किष्किंधा काण्ड का पाठ कर रहे हैं। जब राम सुग्रीव से मिलते हैं तो दोनों एक दूसरे को अपनी-अपनी व्यथा सुनाते हैं। सुग्रीव की पत्नी का बाली ने हरण किया है तो राम की पत्नी का रावण ने। अतः सुग्रीव राम से कह रहा है -”जौन तोहार गत तौन हमार गत”।

”इसी प्रकार तीसरे पंडित जी लंका काण्ड का पाठ कर रहे हैं। जहां पर मंदोदरी रावण को समझा रही है कि आपने जगत जननी जानकी जी का हरण किया है। यह अंधेर कब तक चलेगा? यही पंडित जी कह रहे हैं – ’ई अंधेर कय दिन चली”। और चौथा तो बिलकुल स्पष्ट है। यह भी लंका काण्ड है जहां मंदोदरी के समझाने पर रावण अहंकारपूर्वक कह रहा है, ”जै दिन चली तै दिन चली”।

इस प्रकार मंत्री जी के बुद्धिमानी पूर्ण निष्कर्ष से राजा अपने असमंजस से निकल सके और उन ब्राह्मणों को उचित दान-दक्षिणा दी।

मंत्री जी ने बाद में उन ब्राह्मणों को शिक्षा हेतु वाराणसी भिजवा दिया। जहां कईं वर्षों तक कठोर परिश्रम कर उन ब्राह्मणों ने ज्ञान अर्जित किया और अपने ज्ञान के कारण अलग-अलग राजाओं से पुरस्कार प्राप्त कर धन और विद्या दोनों अर्जित कर वापिस अपने घर लौटे।

 

 

 

Ramakant Mishra

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